उट्ठ जा "थोड़ा रुक जा जरा " कैरि कैरि कै। भंडी वक्त निकल ग्या सैरि सैरि कै।। तू सार लग्यूँ छै जैकु रै लाटा, वू कब कु सरिक ग्या नज़र फेरि कै।। माना कि अभी तू साधन विहीन छै, पर मत भूल कि तू गढ़ कु वीर छै।। तेरा भीतर वों पुरखों को खून रै, जौंन खल्याण बणै यख डांडा चीर कै।। नरसिंह, गोरख, दुर्गा और भैरव, तेरा दगिड़ी नची यख तू कन बिसरेगे । इन बात क्या ह्वा कि निष्तेज़ तू ह्वेगे ? छै कै घंघतोल मा मुखड़ी लूकै कै।। चल उठ वीरा साहस त कैर जरा, उठ संकोच से, उच्छहास त भोर जरा।। सोच विचार कु वक्त नीच अब, कूद जा रण मा बाजू फड़का कै।। (विशेश्वर प्रसाद)
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मंथा न क्वी रैबार, न न्यूतु । माया कु नाट्य धरातल पर। जब ह्वे ही गे मनखि जीवन। तो भुगत ल्यो, अब या मंथा।। अकारण नी क्वी भी चरित्र यख। मगर कृत्य भी क्वी नि बिगान्दु।। लेखो अपणी-अपणी लीला खुद ही, खेलो पाठ और खुदि कैरो पटाक्षेप।। मंथा को स्वप्थु, माया जाल सुन्दर, स्वारा भारा, मयल्दु मन, लोभ प्रेम। निरधुन्ध, हर्षित प्रफुल्लित यौवन। बज्र सा चकाचौंध, पर अंधक भुवन। द्वी बाटा छी, आत्मप्रेम या परप्रेम द्वी बरोबर जरूरी, पर विचारणीय, विधाता न फेरी मनखि की मति, भरि दे चेतना वैका मन मा कनु यो विचार। रचियन्ता न किलै कैर यो फर्क, चौपाया दुपाया को। जब वी च नाट्य। जब वी च मंथा। (विशेश्वर प्रसाद) मंथा (प्रकृति संसार) दुनिया मे हमे न्योता देकर बुलाया नही है, फिर भी माया के इस धरातल पर जब हमारा जन्म हो ही गया है तो इस संसार का उपभोग करो। ---- इस नाटक में बिना वजह कोई पात्र नही लिया गया है, परन्तु तुम्हे क्या मंचन करना है यहां उसे कोई नही बताता। इसलिए अपने लिए पटकथा खुद लिखो अपना पात्र खुद निभाओ और खुद ही इस नाटक का पर्दा भी गिरा दो। -- मंथा (प्रकृति) ने तुम्हार...