मंथा
न क्वी रैबार, न न्यूतु ।
माया कु नाट्य धरातल पर।
जब ह्वे ही गे मनखि जीवन।
तो भुगत ल्यो, अब या मंथा।।
अकारण नी क्वी भी चरित्र यख।
मगर कृत्य भी क्वी नि बिगान्दु।।
लेखो अपणी-अपणी लीला खुद ही,
खेलो पाठ और खुदि कैरो पटाक्षेप।।
मंथा को स्वप्थु, माया जाल सुन्दर,
स्वारा भारा, मयल्दु मन, लोभ प्रेम।
निरधुन्ध, हर्षित प्रफुल्लित यौवन।
बज्र सा चकाचौंध, पर अंधक भुवन।
द्वी बाटा छी, आत्मप्रेम या परप्रेम
द्वी बरोबर जरूरी, पर विचारणीय,
विधाता न फेरी मनखि की मति,
भरि दे चेतना वैका मन मा कनु यो विचार।
रचियन्ता न किलै कैर यो फर्क, चौपाया दुपाया को।
जब वी च नाट्य। जब वी च मंथा।
(विशेश्वर प्रसाद)
मंथा (प्रकृति संसार)
दुनिया मे हमे न्योता देकर बुलाया नही है,
फिर भी माया के इस धरातल पर जब हमारा जन्म हो ही गया है तो इस संसार का उपभोग करो।
----
इस नाटक में बिना वजह कोई पात्र नही लिया गया है,
परन्तु तुम्हे क्या मंचन करना है यहां उसे कोई नही बताता।
इसलिए अपने लिए पटकथा खुद लिखो
अपना पात्र खुद निभाओ और खुद ही इस नाटक का पर्दा भी गिरा दो।
--
मंथा (प्रकृति) ने तुम्हारे लिए यहां जीने के लिए खूब प्रबंध किया है।
मित्र, रिश्तेदार दिए है, एक प्यार भरा मन , लोभ और प्रेम का एक सुंदर माया जाल बना रखा है,
निरधुन्ध, हंसमुख खूब हंसी खुशी से भरी जवानी दे रखी है।
और साथ ही वज्र सा कठोर और अपनी चकाचौंध से अंधा कर देने वाला संसार भी दे रखा है।
------
तुम्हारे पास दो रास्ते है, खुद में लिप्त होकर जीवन निर्वाह करो (स्वार्थ जीवन) या दूसरो को साथ लेकर (परमार्थ जीवन) ..
ये दोनों ही जरूरी है। पर विचार के योग्य है।
फिर विधाता ने मानव के मन को विचलित करने उसके मन को चेतना से भर दिया। और यह विचारने के लिए मजबूर कर दिया कि रचना करने वाले ने क्यो फर्क किया मनुष्य जीवन में और पशु जीवन मे जबकि दोनों का नाटक (जन्म - जीवन - मरण) भी एक है और संसार भी एक है।
(विशेश्वर प्रसाद)
Comments
Post a Comment